Bihar Politics : नीतीश की पलटीमार सियासत में बिहार बीजेपी के लिए क्या बचा? Revival Plan जानिए

बिहार में सत्ता वाली सियासत पलटी मारने जा रही है। पटना के सियासी हलचल के यही संकेत हैं। अब नीतीश कुमार के नए दोस्त बीजेपी नहीं बल्कि आरजेडी होगी। भारतीय जनता पार्टी इसके लिए तैयार नहीं थी। मगर नीतीश कुमार बीजेपी का साथ नहीं चाहते थे। उनको लगता था कि मोदी और शाह की जोड़ी उनके भविष्य को निगल जाएगी। लिहाजा उन्होंने अपने पुराने दोस्त और दुश्मन लालू यादव के पास जाना ज्यादा बेहतर समझा। ऐसे में सवाल उठता है कि इस पूरे उठा-पटक में बीजेपी के लिए क्या बचा है?

nitish modi shah news.

हाइलाइट्स

  • बिहार में बदलनेवाला है सत्ता का समीकरण
  • नीतीश कुमार छोड़ सकते हैं बीजेपी का साथ
  • आरजेडी के साथ जा सकते हैं नीतीश कुमार
  • बिहार में बीजेपी को बदलनी होगी रणनीति
पटना : 'राजा' बनने के दो ही नियम होते हैं। या तो संघर्ष कर सत्ता हासिल की जाए या फिर तख्तापलट से। कहा जाता है कि 'राजा' का साथ रहनेवाला कभी 'राजा' नहीं बनता है। सत्ता का सुख जरूर भोगता है। नीतीश और लालू के संबंध भी कुछ ऐसे ही थे। 12 फरवरी 1994 की कुर्मी चेतना रैली के मंच से नीतीश कुमार ने संघर्ष के रास्ते को चुना। 11 साल बाद 2005 में बिहार की सत्ता को हासिल किया। पिछले 17 साल से राज्य की सियासत को अपने हिसाब से हांक रहे हैं। नीतीश कुमार की छत्रछाया में भारतीय जनता पार्टी ने अब तक (2020 विधानसभा चुनाव) की सबसे बड़ी कामयाबी हासिल की है। मगर सीएम की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाई है। बिहार में अगर नीतीश कुमार अपने 'भगवान' को बदलते हैं तो पहली नजर में बीजेपी के लिए सेटबैक है। मगर दूर की राजनीति की बात करें तो उसके लिए भी आनेवाले समय में रास्ते खुलेंगे। नीतीश की छाप से पार्टी बाहर निकलेगी।

बिहार में बीजेपी पैदा कर सकेगी खुर्राट लीडरशिप
बिहार में 'बीच' का कुछ नहीं होता है। सीधे-सीधे आरपार की लड़ाई होती है। भारतीय जनता पार्टी में जिसने भी नीतीश और लालू से आमने-सामने दो-दो हाथ करने की कोशिश की, उसे पार्टी में 'ऊपर' बैठे नेताओं ने पटना से उठाकर दिल्ली पहुंचा दिया। इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। वो चाहे सुशील मोदी हों, गिरिराज सिंह या फिर अश्विनी चौबे। ये कभी बिहार बीजेपी के चेहरा हुआ करते थे। लालू परिवार का विरोध इनकी पहचान थी। अब प्रदेश के बी-ग्रेड नेताओं के भरोसे अपने लॉयलिस्ट वोटरों को छोड़ दिया गया। इसका खामियाजा ये हुआ कि भारतीय जनता पार्टी के कोर वोटर नीतीश कुमार के भरोसे रह गए। ऐसे में अगर बीजेपी चाहेगी तो सत्ता का मोह त्याग कर संघर्ष के रास्ते पर निकल सकती है। आनेवाले समय में वो खुर्राट लीडरशिप पैदा कर दो-दो हाथ कर सकती है। वरना आज की राजनीति में जो हाल कांग्रेस का है, वही हाल बीजेपी का भी हो सकता है।
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नीतीश के छत्रछाया से बाहर निकल सकती है बीजेपी
दूसरे राज्यों की तरह बिहार में बीजेपी का कोई फेस नहीं है। जो भी चेहरा बनना चाहा, उसे दिल्ली दरबार का रूख करा दिया गया। लालू परिवार के कट्टर सियासी दुश्मन सुशील मोदी को राज्यसभा भेज दिया गया। पटना की डे-टू-डे पॉलिटिक्स से बाहर हैं। वो या तो अखबार में लेख लिखते हैं या फिर ट्वीट के जरिए अपनी बात कहते हैं। मतलब फिल्ड वर्क से उनका कोई लेनादेना नहीं रह गया है। जबकि बिहार में आज जो बीजेपी दिख रही है, उसे खड़ा करने में उनकी मेहनत को नकारा नहीं जा सकता है। सामाजिक रूप से बिहार काफी मैच्युअर्ड सोसाइटी है तो ऐसे में उत्तर प्रदेश वाला फॉर्म्युला यहां लागू नहीं हो सकता है। जाति को हटा दीजिए तो बिहार में आमतौर पर दो तरह के मतदाता होते हैं। एक वो जो किसी भी सूरत में लालू यादव के साथ होता है और दूसरा जो किसी भी सूरत में लालू और उनके सहयोगियों को वोट देना नहीं चाहता है। चूंकि नीतीश कुमार अपना मन बदलने की तैयारी कर चूके हैं तो बीजेपी को कट्टर दुश्मन वाला रोल निभाना होगा।
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जो नीतीश को पसंद नहीं करते वैसे बीजेपी वोटर खुश
भारतीय जनता पार्टी के बहुत से ऐसे वोटर और विधायक हैं तो नीतीश कुमार को पसंद नहीं करते हैं। मगर पार्टीगत मजबूरी की वजह से नीतीश कुमार को वोट देते थे। अगर उनके पास ऑप्शन हो तो वो किसी भी सूरत में नीतीश के साथ नहीं जाएं। 2020 विधानसभा चुनाव में इसकी बानगी दिख चुकी है, जब चिराग पासवान ने जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार उतार दिए तो नीतीश कुमार की पार्टी नंबर एक से तीसरे नंबर पर खिसक गई। मतलब बीजेपी के बहुत से कोर वोटरों ने नीतीश का समर्थन नहीं किया। अगर नीतीश कुमार से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी के नेता अपने नेताओं और वोटरों पर भरोसा करें तो उनके लिए आनेवाले दिनों में बहुत कुछ है। मगर 'ऊपर वाले' नेताओं को स्टेट यूनिट को खुलकर खेलने का मौका देना होगा। वरना दुर्गती तय है।

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