मारुति 800 कार में बैठे नीतीश, सीएम आवास में लालू की बेचैनी, 1994 की कुर्मी चेतना रैली और 38 साल बाद बदले हालात

Bihar Political Crisis : नीतीश कुमार का सियासी करियर ही लालू विरोध के बाद कुलांचे भरा। समता पार्टी से होते हुए मामला जनता दल (यूनाइटेड) तक पहुंचा। पिछले 17 साल से किसी न किसी तरह से नीतीश कुमार बिहार की सत्ता पर हावी हैं। हालांकि इस दौरान एक बार अपना 'भगवान' बदल चुके हैं, दूसरी बार बदलने की तैयारी है। 1994 के कुर्मी चेतना रैली के बाद नीतीश कुमार को सत्ता का स्वाद चखने के लिए 10 साल का इंतजार करना पड़ा, मगर जब आए तो अब तक बरकरार हैं। 

nitish and lalu

हाइलाइट्स

  • बिहार की सियासत में कुर्मी चेतना रैली इतना अहम क्यों है?
  • 1994 की कुर्मी चेतना रैली के बाद लालू से अलग हुए थे नीतीश
  • 38 साल में दूसरी बार लालू के करीब जाने को तैयार नीतीश
  • बिहार की सत्ता में बीजेपी से अलग हो सकते हैं नीतीश कुमार
पटना : 1994 की कुर्मी चेतना रैली के बाद 38 साल में हालात बदल चुके हैं। लालू अपने बेटे को सियासी वारिस बना चुके हैं। बीच में (2014) एक बार और वक्त बदला था। 2022 एक बार फिर 2014 को दुहराने को तैयार है। लेकिन बात उस शुरुआत की यानी कुर्मी चेतना रैली की। तारीख 12 फरवरी, 1994। जगह पटना का ऐतिहासिक गांधी मैदान। खचाखच भरा हुआ। एक साल पहले मुख्यमंत्री और गरीबों के कथित मसीहा लालू यादव (Lalu Yadav ) की गरीब रैला का रेकॉर्ड ध्वस्त हो रहा था। सियासी हीरो के तौर पर नीतीश कुमार का उभार हो रहा था। बिहार में लालू विरोध का सबसे बड़ा चेहरा। मगर एक बार फिर लालू यादव से नीतीश कुमार हाथ मिलाने को तैयार हैं।

ज्ञानू की मारुति 800 कार में बैठे मंच निहार रहे थे नीतीश
90 के दशक में लालू यादव नाम का सिक्का बिहार में चलता था। तब 1994 की कुर्मी चेतना रैली लालू के स्वाभिमान पर चोट थी। उनके अहंकार पर हमला। इस विद्रोह के बीज जनता दल के भीतर से अंकुरित हो रहे थे। खुद को सामाजिक न्याय का पुरोधा कहने वाले लालू ने यादवों (Yadav Vote in Bihar ) को नया 'ब्राह्मण' बना दिया था। इसके विरोध की अगुआई कर रहे नीतीश कुमार (Nitish Kumar) गांधी मैदान के किनारे साथी ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू की मारुति-800 में बैठकर बार-बार मंच निहार रहे थे। मंडल कमीशन बिहार के लिए नया नहीं था। कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur Reservation Policy ) 24 साल पहले मुंगेरी लाल कमेटी की रिपोर्ट लागू कर अति पिछड़ा वर्ग यानी एमबीसी (अब ईबीसी) और पिछड़ा वर्ग को अलग से आरक्षण दे चुके थे (OBC vote in Bihar )। 1993 में नीतीश ने लालू को चेताया कि इस फॉर्म्युले से छेड़छाड़ गैर-यादव ओबीसी बर्दाश्त नहीं करेगा। फिर हवा उड़ी कि लालू कुर्मी-कोईरी (Kurmi-Koeri vote in Bihar) को ही ओबीसी से बाहर करने का प्लान बना रहे हैं। इसी का जवाब लालू को गांधी मैदान में दिया जा रहा था।

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नीतीश को लालू से रिश्ते खत्म होने का डर
नीतीश कुमार 12 फरवरी 1994 की सुबह तक किसी जातीय रैली में जाएं या न जाएं इसको लेकर संशय में थे। नीतीश के गढ़ नालंदा, बिहारशरीफ, बाढ़ के इलाके में वामपंथ का किला बनाकर अलग हुए सतीश कुमार ( Satish Kumar), भोलानाथ सिंह, ब्रह्मानंद मंडल जैसे नेताओं ने कुर्मी चेतना रैली (Kurmi Chetna Rally) का आयोजन किया था। फिर इसी जाति से आने वाले नीतीश को निमंत्रण दिया गया। इसमें रबी रॉय, रामटहल चौधरी, उर्मिला बेन पटेल जैसे नताओं को भी बुलाया गया।

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लालू-विरोधी लहर जबरदस्त सैलाब बनकर गांधी मैदान में उमड़ पड़ी। यह एक विद्रोह था, बगावत थी, लेकिन फिर भी थी एक अंदरूनी बगावत। उधर लालू यादव घर में खुफिया रिपोर्टों पर आंखें गड़ाए बैठे थे और 'कौन-कौन आया-कितने लोग आए' का हिसाब ले रहे थे, वास्तव में सिहर उठे होंगे। लालू को यह जानने की बड़ी उत्कंठा थी कि वे क्या कह रहे थे और उनकी मांग क्या थी। उनके लिए ये जानना सबसे जरूरी था कि क्या नीतीश ने उस रैली में शामिल होने का फैसला किया है। वो बिहार के सबसे विख्यात कुर्मी नेता माने जाते थे और लालू के साथ उनके रिश्तों में आई खटास पटना की खबरी दुनिया के लिए कोई गुप्त रहस्य नहीं रह गया था। अगर नीतीश चेतना रैली के मंच पर चढ़ने का निर्णय करते हैं, तो संबंध-विच्छेद और औपचारिक हो जाएगा।

'लालू सरकार के खिलाफ षड्यंत्र'
पत्रकार संकर्षण ठाकुर अपनी किताब ' द ब्रदर्स बिहारी ' में इस रैली के बारे में लिखते हैं....रैली से पहले ही लालू ने नीतीश को एक संदेश भिजवाया था कि यदि वह रैली में गए, तो उनके इस कृत्य को एक विद्रोह समझा जाएगा। लालू का तर्क था कि वह रैली उनकी सरकार के विरुद्ध एक षड्यंत्र है। अगर नीतीश उसमें भाग लेते हैं, तो यह साथ मिलकर चलने के उद्देश्य के साथ एक विश्वासघात कहलाएगा। पटना के एक, अणे मार्ग के पीछे की लॉन में जहाँ लालू और उनकी टोली बैठी हुई थी, बिलकुल उसके पीछे ही सादी पोशाक में एक सिपाही के हाथों में एक वॉकी-टॉकी निरंतर चट्-चट् कर रहा था। लालू समझ गए कि कुर्मी समुदाय के लोग बहुत बड़ी तादाद में गांधी मैदान में जमा हुए हैं। उनके लिए इससे भी अधिक दिलचस्प खबर सिर्फ एक आदमी के बारे में थी : ‘‘आया जी नीतीशवा? पता लगाओ कहाँ है..

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छज्जू बाग के मंत्री आवास पर मंथन
उधर, नीतीश कुमार गांधी मैदान से कुछ ही दूरी पर विजय कृष्ण ( Vijay Krishna ) के छज्जू बाग स्थित मंत्री आवास में अपने कुछ दोस्तों के साथ घिरे हुए थे। हाल ही में विजय कृष्ण की लालू के साथ एक नोक-झोंक हुई थी। उन्होंने मंत्रिपद से इस्तीफा दे दिया था और एक सक्रिय विरोधी हो गए थे। विजय कृष्ण का मानना था कि कुर्मियों के गुस्से से ही लालू पर पलटवार किया जा सकता है और यह काम नीतीश से बेहतर कौन कर सकता है। उन्होंने नीतीश को सुबह-सुबह अपने घर बुला लिया था। नाश्ते पर और उसके उसके बाद भी वह नीतीश को गांधी मैदान में विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व संभालने के लिए प्रोत्साहित करते रहे थे।

नीतीश खुद से पूछ रहे थे- लालू क्या सोचेगा?
नीतीश ( Nitish Kumar News) अनिश्चय की स्थिति में थे। वह जानते थे कि यह बात लालू को कतई मंजूर नहीं होगी, और उनका गुस्सा भी भड़क उठेगा। नीतीश यह बात भी अच्छी तरह समझ रहे थे कि छज्जू बाग से कुछ कदम गांधी मैदान (Gandhi Maidan) की ओर बढ़ाना उन्हें हमेशा के लिए भारी पड़ जाएगा और उस दिशा में एक बार कदम बढ़ाकर पीछे मुड़कर देखना कभी संभव नहीं होगा। ‘‘उस सुबह इंतजार के कुछ घंटे बहुत कष्टकारक थे’’, विजय कृष्ण ने कहा, ‘‘कष्ट सबसे अधिक नीतीश के लिए था। वह अच्छी तरह समझ रहे थे कि लालू ( Lalu Prasad Yadav ) के साथ चल पाना अब उनके लिए संभव नहीं है, लेकिन इतनी बात कहने का साहस करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था। वह कभी आमने-सामने दो-दो हाथ करनेवाले नहीं रहे, कोई खुद ही टकराने चला आए, तो अलग बात है। वह लालू से दूर भागने के कगार पर थे और फिर भी वह उस सुबह हम सबसे और खुद से पूछ रहे थे कि लालू क्या सोचेगा!’’

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नीतीश को बगावत के लिए तैयार होने में वक्त लग रहा था
विजय कृष्ण हर पंद्रह मिनट पर किसी-न-किसी को गांधी मैदान भेजकर रिपोर्ट मँगवा रहे थे कि वहाँ जमा हुए लोगों का मिजाज कैसा है और भीड़ कितनी है। हर बार उन्हें खबर मिलती कि ज्यादा-से-ज्यादा लोग आते जा रहे हैं, उनका जोश बढ़ा हुआ है और गुस्सा तेज है। लंच का समय हो गया, लेकिन नीतीश ने अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया था। विजय कृष्ण की पत्नी ने खाना मेज पर रख दिया, किंतु नीतीश का मन भोजन करने का नहीं था। वह रुँधे गले से हवा निगल रहे थे। ‘‘जाओ’’, विजय कृष्ण तथा अन्य लोगों ने आग्रह किया, ‘‘जाओ अभी, ऐसा अवसर आपको फिर कभी नहीं मिलेगा, इतना विशाल और बना बनाया मंच फिर कभी आपको न्यौता नहीं देगा कि आओ, बंधन की जंजीरें तोड़ो और एक स्वतंत्र इनसान के रूप में अपनी नई पहल करो। अभी नहीं गए, तो फिर कभी नहीं जा पाओगे। सोचो कि लालू क्या सोचता होगा। वह घबराया हुआ है, उसका सबसे बड़ा भय तुमको लेकर है। जाओ!’

..और नीतीश ने लालू को ललकार सुना दी
वे जहाँ थे, वहीं से उन्हें रोषपूर्ण भाषण लाउड-स्पीकरों के माध्यम से सुनाई पड़ रहे थे, उसके साथ ही भीड़ का बढ़ता शोर भी सुनाई दे रहा था। दोपहर में तीन बजे के आस-पास, नीतीश जैसे ही चेतना रैली के मंच पर चढ़े, मैदान में जमा भीड़ को लगा कि उनका उद्देश्य तो सामने खड़ा है और फिर भीड़ की गर्जना के सुर बहुत तेज हो गए। मंच पर आरूढ़, नीतीश को तत्काल आभास हो गया कि गोल-मोल बात करने, शब्द-छल का प्रयोग करने की कोई गुंजाइश नहीं है, यह आर या पार की घड़ी थी ।

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भाषण की शुरुआत में नीतीश ने लालू को डिफेंड करने की कोशिश की। तभी मंच की ओर कुछ लोगों ने चप्पल फेंक दिए। तब सतीश कुमार ने नीतीश को समझाया कि बात साफ रहनी चाहिए। दूर-दूर से आए लोग टालमटोल बरदाश्त नहीं करेंगे, वे सीधे-सीधे अपनी माँगों के बारे में सुनना चाहते हैं। नीतीश रेखा लाँघ चुके थे। खुद की परख अब उन्होंने उन लोगों को सौंप दी थी जो मुख्यमंत्री को चुनौती देने के लिए उठ खड़े हुए थे। अगर अब वह चूके, तो खतरा दोगुना हो जाएगा। पीछे देखने का सवाल ही नहीं था, भीड़ खुद चलकर उनके पास आ गई थी, विरोधाभासों का घड़ा भर चुका था। अब उन्हें निर्णय लेने की जरूरत नहीं थी, निर्णय उनके ऊपर सवार हो गया था। ‘‘भीख नहीं हिस्सेदारी चाहिए’’, वह गरजे, ‘‘जो सरकार हमारे हितों को नजरअंदाज करती है, वो सरकार सत्ता में रह नहीं सकती’’... उन्होंने चिल्ला-चिल्लाकर अपनी ललकार लालू को सुना दी।

लालू के खिलाफ समता पार्टी का जन्म
उस दिन इतिहास रचा जा चुका था। 12 फरवरी 1994 की सर्द शाम लालू के लिए परेशानी का सबब लेकर आई। इस रैली के आठ महीने बाद ही नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडीस (George Fernandes) की अगुआई में समता पार्टी (Samata Party) का गठन किया गया। गैर-यादव ओबीसी और सवर्णों का मिला जुला सामाजिक समीकरण बिहार की राजनीति का एक और नया प्रयोग था। लेकिन लालू जैसे जमीनी नेता की बादशाहत खत्म करना आसान नहीं था। नीतीश को बिहार की सत्ता के लिए 10 साल और इंतजार जरूर करना पड़ा। वहीं, विजय कृष्ण इस बीच नीतीश के कट्टर दुश्मन बन गए। लालू से हाथ मिला लिया और 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने नीतीश कुमार को हरा दिया। उसके बाद नीतीश कुमार ने आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा।

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