JDU-RJD Alliance : जब नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़कर तेजस्वी यादव से हाथ मिलाया तो अचानक लालू प्रसाद यादव का एक ट्वीट वायरल हो गया। इसमें लालू बताते हैं कि नीतीश कुमार सांप के केंचुल की तरह है और हर दो साल में चोला बदलते हैं, कोई शक। वहीं तेज प्रताप की बाइट जिसमें वो चाचा को चोर बता रहे हैं।
हाइलाइट्स
- नीतीश कुमार ने अवसरवादी राजनीति का नया कीर्तिमान स्थापित किया है
- क्राइम, करप्शन और कम्युनलिज्म, तीनों C से नीतीश ने समझौता कर लिया
- न लालू बदले न बीजेपी, बदली है तो नीतीश की अंतरात्मा
अपराध पर तो नीतीश पर सवाल सबसे ज्यादा तेजस्वी यादव ने ही उठाए। हाल के दिनों में शाम होते ही बाइक की लूट 90 के दशक की याद दिलाती है। एटीएम से सुरक्षित निकलना एक चुनौती बन चुकी है। पटना समेत पूरे बिहार में लगातार मर्डर की घटनाएं हो रही हैं। इसलिए नीतीश कुमार के लिए महागठबंधन सरकार उनका लिटमस टेस्ट साबित होगा। हालांकि ये बात पहले ही साफ हो चुकी है कि बतौर सीएम ये नीतीश का आखिरी कार्यकाल है। इसलिए उनके पास 2024 में खोने के लिए कुछ भी नहीं होगा। या तो वो रिटायरमेंट लेंगे या दिल्ली कूच करेंगे। आज अगर वो सिद्धांतों से समझौता कर रहे हैं, तो इसीलिए। अगर रिटायर हुए तो कोशिश करेंगे पार्टी प्रासंगिक बनी रहे और वो पर्दे के पीछे से पार्टी चलाएं।
नीतीश को तो चाहिए था कि अभी हिम्मत दिखाते, विधानसभा भंग करते और नया जनादेश पाते। लेकिन उनको भी सच्चाई पता है। जनादेश चुराने की परंपरा जो उन्होंने शुरू की है वो बहुत खतरनाक है।
नीतीश कुमार सिर्फ और सिर्फ खुद फैसला लेते हैं। बाकी मौन सहमति पूरी पार्टी की होती है। तकनीकी तौर पर 2013 में भी और 2022 में भी वो विधायकों और सांसदों की बैठक बुलाते हैं और अपना फैसला सुनाते हैं। बाहर आने पर बताते हैं कि सभी विधायकों और सांसदों ने एकमत से कहा है कि एनडीए से अलग हो जाना चाहिए। अरे, ऐसा था तो अब तक किसी विधायक या सांसद ने मुंह नहीं खोला। दरअसल सच्चाई इसके उलट है। लेकिन मजबूरी भी है। वो अपने नेताओं के उस घुटन को भूल गए जो लालू के साथ रहते महसूस हो रही थी औऱ जिसे अलग होने के बाद जगजाहिर किया गया था। नीतीश कितना छुपाएंगे। जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव, प्रशांत किशोर, पवन वर्मा या आरसीपी सिंह। ट्रेंड सेट हो चुका है। जो नीतीश को उनकी मर्जी के खिलाफ सलाह देगा वो नपेगा। इसमें कोई शक नहीं कि जिस स्टाइल से ममता बनर्जी या मायावती पार्टी चलाती हैं वही स्टाइल नीतीश कुमार का है।
जनादेश की चोरी
रही बात भाजपा से अलग होने की और उसके कारणों की। अगर नीतीश को लगता है कि भाजपा उनकी पार्टी को तोड़ने की साजिश रच रही थी। उन्हें कमजोर किया जा रहा था। तो तेजस्वी के साथ जाकर मजबूती खोजने के बदले जनता के पास चले जाते क्योंकि दावा तो यही है कि बिहार की आवाम ने नीतीश कुमार के नाम पर वोट किया है। फिर पांच साल में दूसरी बार जनादेश की चोरी क्यों कर रहे हैं नीतीश कुमार।
बड़ा आश्चर्य होता है जब ललन सिंह कहते हैं कि आऱसीपी सिंह को बिना पूछे भाजपा ने मंत्री बना दिया। सीएम पार्टी के नेता भी हैं। वो चाहते तो एक चिट्ठी लिख देते पीएम को। बता देते अमुक को मंत्री पद से हटा दो। राज्यसभा के लिए दोबारा नामित न कर परोक्ष तरीके से आरसीपी को हटाने का क्या मतलब। साफ है कि ये उनके घर के भीतर की लड़ाई है।
नीतीश कुमार ने अवसरवादी राजनीति में नया कीर्तिमान स्थापित किया है। राज्य में ही नहीं, पूरे देश में। अब बिहार की जनता को मौका चाहिए। नीतीश के इस फैसले पर अपना फैसला सुनाने का। नीतीश को तो चाहिए था कि अभी हिम्मत दिखाते, विधानसभा भंग करते और नया जनादेश पाते। लेकिन उनको भी सच्चाई पता है। जनादेश चुराने की परंपरा जो उन्होंने शुरू की है वो बहुत खतरनाक है। खुद तेजस्वी यादव और लालू यादव ये डर जाहिर कर चुके हैं। लालू ने तो नीतीश को सांप का केंचुल करार दिया था जो हर दो साल बाद चोला बदल लेता है।
जनता सारा नाटक देख रही है
बिहार की जनता सारा नाटक देख रही है। नीतीश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। 90 के दशक में लालू से अलग समता पार्टी जब बनी तो शहरी पढ़ा लिखा वोटर इंजीनियर नीतीश के साथ गया। भाजपा का साथ उनको ताकत देता गया। गाड़ी बढ़ी और शहरी इलाकों में सीटें बढ़ने लगी। जब नीतीश गांव देहात में घुसे तो उन्होंने साफ कहा कि लालू ने सामाजिक न्याय के सफल लड़ाई लड़ी, अब आगे क्या। नीतीश कुमार ने मंडल से आगे का रास्ता दिखाया। वो था डेवलपमेंट का। सुशासन का। जनता त्रस्त थी। तो शहर और देहात, दोनों ने नीतीश मॉडल को पसंद किया। जैसे-जैसे गांव की सड़कें चमकने लगी, बिजली की रोशनी फैलती गई वैसे वैसे लालटेन बुझता गया।
इसमें अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली की भी भूमिका रही। केंद्र में मंत्री रहते नीतीश कुमार भाजपा आलाकमान के काफी करीब रहे। जेटली ने खुद अटलजी से कहा था कि लालू को उखाड़ फेंकने के लिए नीतीश को चुनाव से पहले सीएम उम्मीदवार घोषित करना चाहिए। और 2000 में हुई चूक के बाद 2005 में वही किया गया। नीतीश बिहार की सत्ता पर काबिज हुए।
लालटेन की लौ 2010 में तो खत्म सी हो गई जब आरजेडी 22 सीटों पर सिमट गई। लेकिन 2015 में उन्होंने फिर मोदी विरोध के नाम पर लालटेन की लौ तेज कर दी। बाद में पश्चाताप करते हुए नीतीश कहते रहे कि 2015 से 2017 एक भूल थी। अब अंदाजा लगाइए 2022 के फैसले को जनता के सामने जस्टिफाई करना उनके लिए कितना मुश्किल होगा।
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