नीतीश कुमार पर सत्ता के लिए पाला बदलने में माहिर नेता होने का आरोप लगता रहा है। हैरानी की बात यह है कि जो व्यक्ति लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री है और जिनके पीएम इन वेटिंग की चर्चा हो रही है, उन्होंने कभी भी अपने गृह राज्य में अकेले दम पर कोई चुनाव नहीं जीता है।
हाइलाइट्स
- नीतीश कुमार ने मौका देख कभी बीजेपी तो कभी आरजेडी का थामा दामन
- लालू के साथ शुरू किया राजनीतिक सफर, बिहार भवन की घटना के बाद छोड़ा साथ
- मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषित करने पर एनडीए छोड़ा, 2017 में फिर शामिल हुए
चार बार के मुख्यमंत्री पर अकेले दम पर नहीं जीता एक भी चुनाव
नीतीश कुमार के लिए सत्ता शुरू से ही राजनीतिक करियर का केंद्रीय विषय रही है। हालांकि, यह भी कटु सत्य है कि उन्होंने आज तक अकेले दम पर कभी भी कुर्सी नहीं पाई। हैरानी की बात यह है कि जो व्यक्ति लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री है और जिनके पीएम इन वेटिंग की चर्चा हो रही है, उन्होंने कभी भी अपने गृह राज्य में अकेले दम पर कोई चुनाव नहीं जीता है। नीतीश को शुरू से ही एक बूस्टर डोज के तौर पर हमेशा एक सहयोगी की जरूरत रही। 1995 में उन्होंने भाकपा माले के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा। तब बिहार झारखंड एक ही थे। उस समय 324 सीटों पर हुए चुनाव में नीतीश की समता पार्टी को सिर्फ सात सीटों पर जीत मिली थी।
बिहार से अराजकता खत्म करने के हीरो बने नीतीश
बिहार में लालू राज में फैली अराजकता को खत्म करने को लेकर नीतीश कुमार के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। जब नीतीश को बिहार की सत्ता मिली थी, तब इस प्रदेश को काफी हेय दृष्टि से देखा जाता था। बिहार अपने आप में अपराध से ग्रस्त, पिछड़ा और बीमारू राज्य का प्रतिमान था। लेकिन जब नीतीश सत्ता में आए तो उन्होंने प्रशासनिक सुधारों की झड़ी लगा दी। इसका असर ग्रामीण से लेकर शहरी क्षेत्रों में खूब देखने को मिला। गड्ढों वाली सड़कों की जगह चमचमाती डामर की रोड ने ले ली। अपराधियों पर नकेल कसने के लिए स्पेशल फोर्स का गठन किया गया। रात में पुलिस की गश्त को बढ़ाया गया।
जनता दल से अलग कैसे हुए नीतीश कुमार
नीतीश और लालू के बीच के संबंध हमेशा से ही उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं। लालू और नीतीश के बीच पहली बार विवाद 1992 में देखने को मिला। जगह थी नई दिल्ली स्थित बिहार भवन। नीतीश कुमार उस समय वी.पी. सिंह सरकार में मंत्री थे। हालांकि, उनकी कोशिश बिहार की राजनीति में खुद को बड़े और प्रभावी नेता के तौर पर स्थापित करने की थी। उस समय मध्य बिहार में किसान आंदोलन कर रहे थे। इसी को लेकर नीतीश, तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से मिलने बिहार भवन पहुंचे। लेकिन, कुछ ही देर में दोनों नेताओं के समर्थकों के बीच भद्दे शब्दों की बौछार होने लगी। लालू के तल्ख तेवर को देख नीतीश कुमार वहां से बाहर तो निकल गए लेकिन मन में एक टीस जरूर बन गई।
चारा घोटाले की फाइल खुलवाई, लालू को सत्ता से हटाया
इसी साल नीतिश कुमार औपचारिक रूप से जनता दल से अलग हो गए और लालू के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। नीतीश कुमार लालू यादव के खिलाफ चारा घोटाले में जांच की मांग करने वाले मूल याचिकाकर्ताओं में भी शामिल हो गए। उन्होंने ही 'जंगल राज' का नारा गढ़ा। उन्हीं के नेतृत्व में 'लालू हटाओ, बिहार बचाओ' का अभियान चला। नीतीश बिहार की जनता को समझाने में सफलता मिली 2005 में जब बीजेपी के साथ उनकी पहली सरकार बनी। उनके ही प्रयासों के कारण लालू यादव के खिलाफ चारा घोटाले की सीबीआई जांच में तेजी आई और एक-एक कर सभी मामलों की सुवाई हुई।
नीतीश कुमार मोदी के दोस्त या दुश्मन?
नरेंद्र मोदी को लेकर नीतीश कुमार के विचार समय के साथ बदलते रहे हैं। साल 2009 की वह घटना भला कौन भूल सकता है, जब नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री और एनडीए के प्रमुख घटकों में से एक थे। तब 2009 के लोकसभा अभियान का नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी कर रहे थे। उस समय पंजाब के लुधियाना में एनडीए का शक्ति प्रदर्शन था, जिसमें नीतीश को भी आमंत्रित किया गया था। नीतीश ने उस कार्यक्रम में जाने से साफ इनकार कर दिया। वो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा नहीं करना चाहते थे। उन्होंने अपनी जगह उस समय पार्टी अध्यक्ष रहे शरद यादव से रैली में शामिल होने का अनुरोध किया। हालांकि, बीजेपी के दिग्गज नेता (अब दिवंगत) अरुण जेटली ने उन्हें मनाया और नीतीश चार्टर्ड विमान से लुधियाना पहुंच गए। इस दौरान मंच पर मोदी ने उनका हाथ पकड़कर ऊपर उठा लिया। फिर क्या था पूरे राजनीतिक हलके में तहलका मच गया।
एनडीए से पहली बार अलग क्यों हुए नीतीश कुमार
2010 में बिहार में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित की गई। इसमें गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए। उन्होंने उस समय बिहार में आए बाढ़ को लेकर गुजरात की तरफ से 5 करोड़ रुपये की पेशकश कर दी। फिर क्या था नीतीश कुमार तमतमा गए और उसे बिहार के अपमान के साथ जोड़ दिया। उनका पार इतना चढ़ गया कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के सम्मान में रखा रात्रिभोज भी रद्द कर दिया। 2013 में जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया, तब भी नीतीश कुमार ने इसका विरोध किया। यही कारण था कि उन्होंने बीजेपी से अपना नाता तोड़कर लालू प्रसाद के आरजेडी के साथ गठबंधन किया। हालांकि, वो 2017 में फिर से बीजेपी के साथ आ गए। हालांकि, वो बीजेपी के साथ पांच साल भी नहीं टिक पाए। नीतीश फिर से उसी आरजेडी के साथ हैं जिनके अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव नीतीश को पलटू राम का तमगा दे चुके हैं।
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