बिहार में असली गेम अब शुरू हुआ है, नीतीश की 'पलट चाल' से 2024 के सारे समीकरण समझिए

बड़ा सवाल ये है कि बीजेपी 2024 के लिए जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस की संयुक्त ताकत का सामना करने के लिए कितनी तैयार है। क्या नतीजे 2015 के बिहार चुनाव की तरह होंगे जब महागठबंधन ने आसानी से BJP को मात दी थी? या पड़ोसी यूपी के 2019 चुनाव की तरह होंगे जब बीजेपी ने सपा और बसपा के महागठबंधन को आसानी से हराया था?

 
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नीतीश की चाल से बदले बिहार के जातिगत समीकरण

हाइलाइट्स

  • नीतीश की 'पलट चाल' से बीजेपी को अब मिलेगा 'चेंज' वोट का फायदा
  • बीजेपी अगले लोकसभा चुनाव तक नीतीश को साथ रखना चाहती थी
  • बीजेपी के लिए यूपी के मुकाबले बिहार की सियासी बिसात ज्यादा चुनौतीपूर्ण है
जब भी दो पार्टियां अलग होती हैं तो हमेशा इसके कई कारक होते हैं लेकिन हर मामले में ढांचागत कारण जरूर होते हैं। 2014 के बाद वाली मोदी-शाह युग की बीजेपी आक्रामक ढंग से विस्तारवादी है। यह धीरे-धीरे महाराष्ट्र, असम और गोवा में अपने सहयोगियों को ही निगल चुकी है, उनकी जगह ले चुकी है। बिहार भी इससे अलग नहीं है।

जेडीयू का मानना है कि पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने चिराग पासवान की एलजेपी का इस्तेमाल करके उसे नुकसान पहुंचाया। जेडीयू की सीटें घट गईं और गठबंधन में बीजेपी की सीटें बढ़ गईं। इस लिहाज से ढांचागत अंतर्विरोध की वजह से गठबंधन का टूटना तय ही था। बीजेपी और जेडीयू के लक्ष्यों का टकराव लाजिमी था। जहां बीजेपी का लक्ष्य सूबे की सियासत में अपना दबदबा बढ़ाना है, वहीं जेडीयू का मकसद अपने सामाजिक आधार को बरकरार रखने की है।

जेडीयू के एनडीए छोड़कर एक बार फिर आरजेडी के साथ जाने से बिहार में एक बार फिर नए राजनीतिक समीकरण उभरेंगे। बदली परिस्थितियों में बिछी राजनीतिक बिसात पर सूबे के तीनों मुख्य दलों के लिए अवसर भी हैं तो खतरे भी।

बीजेपी अब बदलाव के लिए वोट मांग सकती है
बीजेपी इस बात से खुश हो सकती है कि अब बिहार में सत्ताविरोधी रुझान की वह मुख्य और बहुत हद तक इकलौती लाभार्थी होगी। करीब दो दशकों से (मांझी के संक्षिप्त कार्यकाल का अपवाद छोड़कर) बिहार में नीतीश कुमार की अगुआई वाली सरकार रही है। पिछला चुनाव बताता है कि वोटरों में बेचैनी बढ़ रही है। राज्य में बदलाव के लिए वोट डालने वालों की संख्या बढ़ रही है। अब बीजेपी अगले विधानसभा चुनाव में इस 'चेंज' वोट की प्रमुख लाभार्थी हो सकती है।

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यहां टाइमिंग बहुत अहम है जो बीजेपी के खिलाफ गई है। बीजेपी शायद अगले लोकसभा चुनाव तक नीतीश को साथ रखना चाहती थी। तब तक धीरे-धीरे वह अपने संगठन को मजबूत कर लेती और राज्य में नई पीढ़ी के नेतृत्व को उभारने में कामयाब रहती।

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दूसरी तरफ, जेडीयू अपने ईबीसी (Economically Backward Caste) यानी अति पिछड़ों और महादलित वोटर बेस में बीजेपी की सेंधमारी रोकने की कोशिश करेगी। इसके लिए वह आरजेडी के साथ महा मंडल गठबंधन का इस्तेमाल करेगी। लेकिन यहां जेडीयू के लिए खतरा भी है। खतरा ये है कि पार्टी अब शायद जल्द ही किसी और की पिछलग्गू बन जाए। इस बार आरजेडी की पिछलग्गू। 2015 से उलट इस बार आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी है लिहाजा उसकी मोलभाव की क्षमता ज्यादा है। सरकार में उसकी ज्यादा चलेगी।

हालांकि, आरजेडी के लिए भी खतरा है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में पार्टी अबतक नीतीश राज के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाती रही है। पिछले चुनाव में उसने नौकरियों को लेकर नीतीश सरकार के खिलाफ आक्रामक प्रचार-अभियान चलाया था। अब सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा होकर आरजेडी करीब दो दशक लंबे नीतीश राज की कथित नाकामियों का मुद्दा नहीं उठा पाएगी। वैसे आरजेडी इस नुकसान की भरपाई के लिए सरकार में ज्यादा भागीदारी के जरिए EBCs में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की कोशिश करेगी।
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BJP के लिए यूपी के मुकाबले बिहार की सियासी बिसात और ज्यादा चुनौतीपूर्ण
फिलहाल बड़ा सवाल ये है कि बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस की संयुक्त ताकत का सामना करने के लिए कितनी तैयार है। क्या नतीजे 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव की तरह होंगे जब महागठबंधन ने आसानी से बीजेपी को मात दी थी? या पड़ोसी यूपी के 2019 चुनाव की तरह होंगे जब बीजेपी ने सपा और बसपा के महागठबंधन को आसानी से हराया था?

बीजेपी के लिए बिहार में जातिगत केमिस्ट्री को साधना निश्चित तौर पर यूपी के मुकाबले ज्यादा चुनौतीपूर्ण है।

जेडीयू-आरजेडी का संयुक्त कोर वोट बेस (15 प्रतिशत यादव, 11 प्रतिशत कुर्मी-कोइरी, 17 प्रतिशत मुस्लिम) बीजेपी (15 प्रतिशत सवर्ण) के मुकाबले काफी बड़ा है। ऐसे में बीजेपी को फ्लोटिंग वोटर्स (26 प्रतिशत EBCs यानी अति पिछड़ा वर्ग, 16% दलित) को साधना होगा। फ्लोटिंग वोटर्स वो हैं जो किसी पार्टी विशेष के कोर वोटर नहीं हैं, जिनका वोटिंग पैटर्न अनिश्चित है। जो एक वोट बैंक के तौर पर किसी पार्टी से नहीं जुड़े हैं। इसके अलावा पार्टी कोइरी समुदाय को जेडीयू से छीनने के साथ-साथ यादवों में भी कुछ सेंध लगाने की कोशिश कर सकती है।
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अंकगणित के लिहाज से देखें तो बीजेपी के लिए ये चुनौती एकदम यूपी की तरह दिख सकती है। यूपी में बीजेपी सवर्ण वोटरों के साथ-साथ गैर-यादव ओबीसी जातियों और गैर-जाटव दलितों को साधकर सियासी करिश्मा में कामयाब हो गई।

लेकिन बीजेपी के लिए बिहार में असली समस्या कास्ट केमिस्ट्री है जहां मंडल पार्टियों की ऐतिहासिक रूप से EBCs और दलितों में व्यापक स्वीकार्यता है। EBCs के बीच आरजेडी की पैठ भले ही धीरे-धीरे कमजोर होती चली गई लेकिन मंडल धारा की अन्य प्रमुख पार्टी जेडीयू आरक्षण में सब-कोटा की राजनीति के जरिए इन तबकों को साधने की कोशिश करती रही है।

नीतीश कुमार खुद को ईबीसी नेता के तौर पर प्रोजेक्ट करते हैं न कि सिर्फ कुर्मियों के नेता के तौर पर। इसकी वजह ये है कि बिहार की आबादी में कुर्मी की तादाद महज 2 प्रतिशत है। समाजवादी पार्टी के उलट, नीतीश कुमार अपनी कल्याणकारी नीतियों और 'विकास' की राजनीति के जरिए ईबीसी की आकांक्षाओं की पूर्ति की भरपूर कोशिश करते रहे हैं। 2015 के चुनाव में ये फ्लोटिंग वोटर्स समूह दोनों प्रमुख गठबंधनों में तकरीबन बराबर-बराबर बंटे थे।

इसी तरह, यूपी के उलट बिहार की मंडल पार्टियों की दलितों में गहरी पैठ रही है। लालू प्रसाद यादव ने खुद को 'गरीबों के मसीहा' के तौर पर पेश करके दलित वोट के एक बड़े तबके को अपनी ओर खींचा था। बिहार में दलितों ने 'अपनी' पार्टियों के मुकाबले मंडल पार्टियों पर ज्यादा भरोसा जताया है।

2015 में एनडीए के पक्ष में एक पासवान पार्टी (एलजेपी) और एक महादलित पार्टी (HAM) थी फिर भी दलित वोटों पर उसका जादू नहीं चला। यहां तक कि इन दलित सहयोगी पार्टियों का प्रदर्शन बेहद लचर रहा था। जिन 63 सीटों पर ये पार्टियां चुनाव लड़ी थीं, उनमें से सिर्फ 3 पर ही जीत हासिल कर पाईं।

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बीजेपी vs महागठबंधन अगेन
इस बार मुकाबला बहुत कड़ा रहने वाला है।

  • राज्य में नेतृत्व संकट से जूझ रही बीजेपी की निर्भरता मोदी फैक्टर पर रहेगी
  • नीतीश की लोकप्रियता सिकुड़ रही है। सर्वे बताते हैं कि 2015 में सीएम के तौर पर उनके कामकाज से जहां 80 प्रतिशत लोग संतुष्ट थे, 2020 में ये आंकड़ा घटकर 52 प्रतिशत रह गया।
  • बिहार में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की अप्रूवल रेटिंग ज्यादा बनी हुई है। इसके अलावा बीजेपी ने कल्याणकारी योजनाओं और सांप्रदायिक माहौल से संभवतः ईबीसी और दलितों में पैठ बढ़ाई है।

दूसरे शब्दों में कहें तो बिहार के सियासी 'खेला' में सबके लिए सब कुछ है। अवसर भी, चुनौतियां भी। इसलिए सियासी ज्योतिषियों को बहुत फूंक-फूंककर भविष्यवाणी करने की जरूरत है।

(हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे पोलिटिकल रिसर्चर आसिम अली के लेख का हिंदी अनुवाद)

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